वो जो लगातार कर रहे हैं बातें
उनकी मेरी भाषा की
मेरी भी प्रिय भाषा की
बता रहे हैं
क्या है प्रिय उस भाषा को
और कैसे बना दिया जाए
उस भाषा को सबकी प्रिय भाषा
कर रहे हैं बातें
क्या है उसमें बिकता हुआ
वो आँखें मूदें हैं
संभावनाओं की ओर से
वांछित, अवांछित का उन्हें ख्याल नहीं
वो कारण तक नहीं सुनना चाहते
भाषा से हो रहे पलायन का
जाने यह प्रवास है
आप्रवास है
जो भी है वह नया शब्द
उस प्रक्रिया के लिए
जिसमें लोग बसते हैं
बाहर, दूर जन्म स्थान से
पैतृक मात्रिक मूल स्थान से
देश अथवा विदेश में
जो भी है वह प्रक्रिया
जिसमें एक बहुत बड़ी आबादी
तय कर रही है
वह बोलेगी, चालेगी
पढ़ेगी, लिखेगी अंग्रेजी में ही
वहीँ उसे आराम है ज़्यादा
यह कहाँ है अपनी?
यह इतनी वर्जनाओं
शुद्धियों की बनी हुई भाषा?
जो उधेड़ने में लगी है बखिया
जीवनों के निजी अध्यायों का?
और लगभग लादते हुए अपनी दृष्टि
हर कुछ शालीन और प्रतिष्ठित पर
वो चर्चा तक नहीं करना चाहते
अंग्रेज़ियत की बढ़ती वजहों की ……………….
पृथ्वी की सिसकियाँ– -बिहार नेपाल बाढ़ २०१७
रोई ही होगी पृथ्वी उस दिन
और उसी के आंसुओं में
डूब गयी होंगीं
उसकी पाली पोसी फसलें
जब ज़रा सी बारिश में
उफनी उपलाई होंगीं
नदियां उसकी
मानो समेट न पाती हों
अब ज़रा सा जल भी
मानो कम से कमतर
होती जाती हो गहरायी उनकी
खानाबदोश या खुद बेघर सी
औरों के घरों को करती हुई जल मग्न
समाती हुई उनके आकाश
पाताल में
रोई होंगी नदियां भी
और जो रोई न होगी पृथ्वी
ह्रदय उसका भी फटा होगा
भू गर्भ शास्त्री कहते हैं
पानी से लबरेज होने पर आता है भूकंप
यह एक सिद्धांत है
और सालाना अथवा दो साल बाद
बाढ़ में डूबने वाले नेपाली बिहारी
प्रदेशों के लिए चेतावनी और सुझाव
भूकंप से बचने के लिए
बाढ़ से भी बचें
करें, जो भी है संभव उपाय
मैं कोई बाँध शास्त्री नहीं
लेकिन दुनिया की उन सभी नदियों पर
कारगर, असरदार बाँध हैं
जिनमें बाढ़ की ऐसी होती है आशंका
और दुनिया में खुली, खाली जगहें भी हैं
थोड़ी सी हम वह भी बना सकते हैं
कामकाज़ी बांधों के साथ साथ…………………….
फुटपाथ और लोकतंत्र
होन्ग कोंग के अम्ब्रेला लोकतंत्र आंदोलन की
नहीं पड़नी चाहिए ज़रुरत
हमारी लोकतांत्रिक सुधार योजनाओं को
हम जो चीन के सामानों का
खुले आम कर रहे हैं बहिष्कार
हम भी हैं, चीन अधिकृत प्रदेशों में
पर पूरा पूरी नहीं
हमारे ज़रा से भू भाग पर
चीनी कब्ज़ा है
वह हमारा अव्वल पर्यटन स्थल है
और कोई नहीं कहता
हम उसे हार जाएँ
दान कर दें
लेकिन अपने स्वतंत्र भूभाग पर
छिड़ी हुई भयावह लोकतान्त्रिक लड़ाई
की शक्ल तो पहचानें
क्या इतनी रच बस जा रही है
यह लड़ाई हमारे पोर पोर में
कि हमारे घरों के आहाते
हमारी सड़कें तब्दील हो रही हैं
लड़ाई के से मैदान में?
क्या घर से निकलना
किसी युद्ध में शामिल होने को
मुस्तैद होने जैसा होना चाहिए?
तुम कैसे जीतोगे
सरहद पर की लड़ाई अपनी
जिसके लिए तैनात कर रखी हैं
तोपें तुमने?
अगर तुम अंदर नहीं बहाल कर सकते
शान्ति और अमन चैन?
अगर तुम्हारी गाड़ियां
अपना जन्मसिद्ध अधिकार
समझती हैं
हर दो लेन वाली सड़क को
तीन और चार लेन वाली सड़क में तब्दील कर देने का?
वो समझती हैं अधिकार
हर जगह तोड़ने का
अनुशासन सड़क पर?
पर तुम बस बना देते हो
चलने वालों के लिए
फुटपाथ गज भर ऊँचें?
जिनकी चल रही है
घुटनों की मरम्त
वो कैसे चलेंगे
इस इतने उबड़ खाबड़ फुटपाथ पर?
क्यों कर चले कोई फुटपाथ पर
अगर इतनी हों सीढ़ियां
उसपर ही चढ़ती और उतरती हुई!……………….
पंखुरी सिन्हा
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